पहला अध्याय
एक समय अनेक ऋषिगण धर्मक्षेत्र में एकत्र हुए और वहां धर्म के तत्व जानने वाले सूत जी से ऋषि कहने लगें - हे पुराण के मर्मज्ञ, महात्मने, आप हमारे ऊपर अत्यंत कृपा करके हमारे इस अचानक उत्पन्न हुए सशंय का नाश किजीए। हमने सर्व व्यापक विष्णु के अनेक रूप सुने है, उनमे से कौन सा रूप सर्वश्रेष्ठ है, यह हमे बताइयें। हे महात्मा, मुनियो, तुमने संसार के कल्याण के लिए यह सर्व शुभ काम करने वाला बडां प्रश्न किया है, जो तुमने यह संसार के हित के लिए प्रश्न किया है, अतएव मै तुम्हारे लिए सब जगत् पालक परम पूज्य भगवान विष्णु के महाअद्भुत रूप का वर्णन करूगां। हे तपस्वियो, उस परमात्मा के अनन्त रूप है, उनमे जो अनन्तं श्रेष्ठ है, उस रूप को अदंर से सुनो। उस दिव्य रूप के स्मरणमात्र से महापातकी मनुष्य भी पाप से छुट जाते है, इसमे सशंय नही है। इस ही प्रश्न को संसार के कल्याण के लिए क्षीरसमुद्रं में लक्ष्मी न् भगवान विष्णु से एक बार पूछा था ।
लक्ष्मी कहने लगी - हे जगन्नाथ। आपके महान् अनेक रूपो को भक्तमनुष्य भक्तियुक्त होकर पृथ्वी पर पूजते रहते है। हे प्रिय। क्या वे रूप सब समान ही हैं या उनमें गौण और मुख्य किसी प्रकार का भेद है। विष्णु भगवान बोले – हे प्रिय, जब मैं समस्त ब्रह्माण्ड को आत्मा में सहंत करके स्वानुभव रूप से योगमाया के स्थित होता हूँ, तब मैं एक ही बहुरूप धारण करू, इस प्रकार इच्छा करता हुआ अपनी माया के वश में हुआ। जीवों को कर्मभोग के लिए क्षणमात्र मे असंख्य ब्रह्मलोकादि लोकों को जिस रूप से रचता हूँ, हे देवी, उस रूप को मैं तुझसे कहता हूँ, तू ध्यान से सुन।
हे देवी, मैं यंहा अद्भुत सब ओर तेज से व्याप्त अनेक सूर्यो की चमक से अधिक चमकने वाले विश्वकर्मा रूप को धारण करता हूँ, और उनके अनन्तर मनुष्य सृष्टि करने की कामना करता हुआ सर्व प्रथम पुण्यात्मा तपस्वी ब्रह्म को रचता हूँ। उस ब्रह्मा की स्तुति यज्ञ और गान के प्रतिपादन करने वाले ऋग, यजुः और सम की अच्छी प्रकार उपदेश देता हूँ। इसी प्रकार शिल्प विद्या प्रतिपादक अतर्ववेद भी ब्रह्मा को प्रदान करता हूँ। यह वही वेद है जिससे शिल्पी लोगों ने शिल्प निकाल कर अनेक वस्तुओं की रचना की है। हे देवी, मेरे अनेक रूपों में यह विश्वकर्मा रूप मुख्य है। यही रूप है जिससे सारी सृष्टि क्षणमात्र में उत्पन्न होती है। इस विश्वकर्मा रूप परमात्मा के अद्भुत रूप का जो क्षणमात्र भी ध्यान करता है, उसके समस्त विध्न नष्ट हो जाते हैं। जो शिल्पी श्री विश्वकर्मा के प्रोज्जवल दिव्य रूप का ध्यान से चिंतन करता है, उसके समस्त दुःख विशीर्ण हो जाते हैं।
दूसरा अध्याय जल्द ही प्रकासित किया जायेगा
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